सरदार रुड़का सिंह का जन्म 1 सितंबर 1899 को हिमाचल प्रदेश के उन्ना जिले के पंजावर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम आशा सिंह और माता का नाम जीवी देवी था। उनके पिता एक साधारण किसान थे और खेती-बाड़ी उनके परिवार का पैतृक व्यवसाय था। रुड़का सिंह की पत्नी का नाम श्रीमती दुर्गा देवी था, और उनके चार बच्चे थे: तीन बेटियाँ—भगवंत कौर, गुरबचन कौर और अमर कौर—और एक बेटा, महेंद्र सिंह। महेंद्र सिंह ने पढ़ाई के प्रति रुझान तो दिखाया, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण केवल आठवीं कक्षा तक ही पढ़ पाए और फिर अपने पिता के साथ खेती-बाड़ी और बिजली के काम में हाथ बंटाने लगे।
उन दिनों उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। लेकिन रुड़का सिंह ने संघर्ष का रास्ता अपनाया और 6 सितंबर 1917 को दसवीं बटालियन, चौदहवीं पंजाब रेजीमेंट में फिरोजपुर से भर्ती हो गए। उनकी कर्तव्यनिष्ठा और कौशल को देखकर उन्हें रावलपिंडी भेजा गया, जहाँ 11 मार्च 1919 को परीक्षा पास करके वे वापस लौटे। उनकी मेहनत और समर्पण को देखते हुए उनकी पदोन्नति की गई, और 9 वर्षों तक वे इस पद पर रहे। इसके बाद उन्हें ईसापुर बारूद फैक्ट्री के परीक्षण के लिए भेजा गया, और 14 सितंबर 1928 को वे प्रथम श्रेणी के आरमोटर बने और हवलदार के पद पर कार्यरत रहे। 1 अक्टूबर 1935 को वे सेवा निवृत्त हो गए।
सेवानिवृत्ति के बाद, एक घटना ने रुड़का सिंह को क्रांतिकारी बना दिया। उनके गाँव पंजावर में जैलदार राजेन्द्र सिंह ने उनकी बेटी कुमारी भंतो को आम के पेड़ से आम उठाने पर पीटा। जब बेटी ने यह घटना अपने पिता को सुनाई, तो रुड़का सिंह ने जैलदार को ललकारते हुए कहा, "आज के बाद मेरा परिवार आम के पेड़ से आम नहीं उठाएगा, लेकिन तू भी यहाँ का मालिक नहीं रह सकेगा।" इस घटना ने उन्हें गाँव और समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।
1938 में, उन्होंने किसान सभा का गठन किया और स्थानीय किसानों के हक के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। धीरे-धीरे लोगों ने उन्हें अपना नेता मान लिया और उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। यह जन आंदोलन राजवाड़ा शाही को सहन नहीं हुआ, और उन्हें और उनके साथियों पर झूठे आरोपों के तहत लकड़ी चोरी का मुकदमा बना दिया गया। उनके खिलाफ दमनकारी नीतियों के बावजूद, वे संघर्ष करते रहे। उनकी मासिक पेंशन, जो 1936 में बंद कर दी गई थी, उन्हें जीवन भर नहीं मिल सकी क्योंकि स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस जागीरदारों के प्रभाव में थी।
15 अगस्त 1947 को जब देश स्वतंत्र हुआ, तो डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा बनाए गए संविधान में बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के सुझाव पर गरीब किसानों को जमीन का मालिकाना हक दिया गया। 15 जून 1952 को सरकार ने अध्यादेश जारी कर 84 गाँव के किसानों को जमीन का मालिक बना दिया।
10 मार्च 1962 को, रुड़का सिंह ऊना से लौटते वक्त स्वां नदी के पास अचानक खून की उल्टी के बाद जीवन की अंतिम सांस ली। उनके निधन की खबर सुनते ही हजारों लोग पुल पर एकत्रित हो गए और पंजावर गाँव की ओर कूच कर गए। 11 मार्च 1962 को शाम 3:00 बजे उनका अंतिम संस्कार किया गया।
सरदार रुड़का सिंह को उनकी बहादुरी और समाज सुधार के लिए हमेशा याद किया जाएगा। उन्होंने न केवल जागीरदारों के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई, बल्कि अपने समुदाय के हक और सम्मान के लिए आजीवन संघर्ष किया। उनकी याद में सरदार रुड़का सिंह कल्याण समिति का गठन किया गया है, जो आज भी जिला उन्ना में सक्रिय है। वर्तमान में इस समिति के अध्यक्ष इंजीनियर बलबीर सिंह हैं, जो उनके कार्यों को आगे बढ़ा रहे हैं।
सौजन्य: इंजीनियर बलबीर चौधरीह